लोग खा जाते हैं धोखा
होंठों पे फैली तबसुम से
समझते हैं बाग़ हूँ मैं
पर तड़पता हुआ सा सहरा हूँ मैं
अपने ही ग़मों से बोझिल
एक ठहरा हुआ सा दरया हूँ मैं
लोग उथले रिश्तों को भी
जी भर कर पीते हैं
पर गहरे नाते जोड़ के भी मैं
सदा से प्यासा हूँ मैं...
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