आगे बढ़ना है हमे ,
आसमां छूना है ,
नया भारत कहना है खुद को ...
फ़िर भी गुडगाँव , गुवाहटी
या अपने ही घर में ,
क्यों आधा भारत ....
सिर्फ सिसकियाँ भरता है ?
सिर्फ सिसकियाँ भरता है ?
रात को घर से निकलते डरता है
बर्बरता से मुर्दित अस्मिता सहलाता है
नमकीन आंसुओं का मरहम लगता है ....
और शेष आधा ...
या तो नीच निशाचर बन
भूखे भेडिये सा
शिकार ढूंढता
रस्ते पर घूमता है
या फ़िर निस्तब्द तमाशबीन
घर की इज्ज़त
तार तार होते बस ताकता है ।
मंदिर में जिसको पूजते हैं
उसी को सड़कों पर
वेहशी बन कर नोचते हैं
क्या आगे बढ़ रहे हैं हम ,
क्या तो आसमा छुएंगे
और क्या ही नया है हम में ....
क्या ही नया है ??
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