बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

सहरा

लोग खा जाते हैं धोखा 
होंठों पे फैली तबसुम से
समझते हैं बाग़ हूँ मैं
पर तड़पता हुआ सा सहरा हूँ मैं 
अपने ही ग़मों से बोझिल 
एक ठहरा हुआ सा दरया हूँ मैं 
लोग उथले रिश्तों को भी 
जी भर कर पीते हैं 
पर गहरे नाते जोड़ के भी मैं 
सदा से प्यासा हूँ मैं...

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