रविवार, 19 सितंबर 2010

ज़िन्दगी तू रूकती नहीं...

यह कविता मेरे माता पिता को समर्पित  है और साथ  ही  विश्व के समस्त अभिभावकों को, जो अपने जीवन की तमाम  छोटी  बड़ी खुशियों का परित्याग  करते है ताकि उनके बच्चे एक  बेहतर जीवन  जी सकें, अपने ख्वाबों को पूरा कर सकें । और कहीं  शायद  उम्मीद करते हैं  कि जब वो बूढ़े हों तो यही  बच्चे उनके  बुढ़ापे  की लाठी, उनका सहारा बनें .....


 ज़िन्दगी तू रूकती नहीं ,
शायद तूने रुकना सीखा नहीं 
तू भागती रही और मैं तुझसे कदम 
मिलाने कि जद्दोजहद में जूझता रहा 
पर तूने रुकना नहीं सीखा है 
पैरों में पंख लगे हैं तेरे  शायद ....

कब पालने में थी , कब गोद में 
और  कब कंधे पर 
कब तूने उंगली पकड़ कर चलना सीखा 
जाने कौन, कहाँ से कोई हौंसला जागा 
और तू  हाथ छुड़ा  के दौड़ दी   
भागा मैं तेरे पीछे, थोड़ी  रफ़्तार भी तेज़ की
पर  हर नयी पीढ़ी पिछली से तेज़ भागती है 
आखिर मैंने मोह त्याग ही दिया 
ताकि तू उड़ सके , आसमा की बुलंदी को छू सके
अपने सपनो को पूरा कर सके....
आज दूर खड़ा तेरे फैले पंखों को निहारता हूँ 
ख़ुशी कि तेरी किलकारियों को  
किसी मधुर गीत कि तरह सुनता हूँ 
 और इंतज़ार करता हूँ 
कि जिस हाथ को थामतूने चलना सीखा है 
उस बूढ़े हाथ की लाठी बनने का भी

शायद तू कभी ख्याल करे ....