पांच साल बीत भी गए,
कुछ लम्हों में बीते,
कुछ अरसों में…
ज़िन्दगी की यही रवायत है शायद
साथ पलक झपकने का होता है
और हिज़्र बरसों का…
आज फिर चौराहे पर हैं हम
और बदनसीबी के चौक पे
लैंडस्केपिंग नहीं
रुके वक़्त का गन्दा तालाब है।
या बर्लिन की दीवार है शायद
जिसके एक तरफ मैं हूँ
और दूसरी तरफ तुम
और है हफ़्ते में दो दिन का वीसा
तुम से, आरना से, माँ से मिलने का.....
जानता हूँ हंसी, ख़ुशी, ठिठोली के मौके थे कम
और दुःख, आंसू, तकलीफ का कोटा मोटा,
पर पांच बीते हैं, पांच सौ बाकी....
रास्ता अभी लम्बा है, देखते हैं
ज़िन्दगी और क्या है दिखाती है …