बिन भाव कविता है क्या ?
मात्र शब्द ही तो हैं ,
और भाव क्या है?
मेरा अक्स ही तो हैं ,
तो कविता मुझसे भिन्न कैसे हो ?
यह तो मेरी ही है ,
तुम्हारी कैसे हो ?
फिर कैसे करूँ शिकवा ,
जब कोई कहे,
मज़ा नहीं आया
कि दिल तक पहुंची नहीं,
अरे पगले !
कभी हम दिल तक पहुंचे हैं,
जो कविता दिल तक पहुंचेगी,
यह तो खुद मुझ ही में उलझी है ।
मेरी शंकाओं पर पली है ,
मेरे ही भय पे खेली है,
तो मुझ से आगे कैसे निकले ,
यह तो मेरी ही है ,
तुम्हारी कैसे हो ?