शनिवार, 1 दिसंबर 2012
गुरुवार, 22 नवंबर 2012
गुब्बार
पारवती चूल्हे में लकड़ी डाल सुलगाने की कोशिश कर रही थी । जल्द ही सारी रसोई धुंए से भर उठी और धुआं पारवती के फेफड़ों के कोनो को जलाने लगा और आखों से गंगा-जमुना छलक उठी । जाने आज लकड़ी सीनी थी या उसके ही मन का गुब्बार था जो फुट पड़ा था , वह तय नहीं कर पायी । बस दीवार से सर टिका निढाल हो गयी ।
अभी कल ही की तो बात है जब वो दुल्हन के लाल जोड़े में शर्मा रही थी । दूर पास की बड़ी-बूढी औरतें उसे आसिसें दे रही थी , हम उम्र अठकेलियाँ कर रही थी और छोटी सपनो भरी निगाहों से उसे निहार रही थी । पारवती का ब्याह पास ही के गाँव के लम्बे-चौड़े नौजवान से तय हुआ था । तो क्या हुआ अगर वो कुछ सांवली थी उसके भाईयों ने लेन-देन में कोई कसर नहीं रखी थी । कुलजीत नाम था उसके गबरू लाड़े का । अम्बरसर में कपड़े की मिल में काम करता था । अब गाँव में शहर में नौकरी करने वालों का अलग ही रुतबा रहता था । वही रुतबा उसके पति था तो सभी ब्याह से खूब खुश थे ।
पारवती के भी पहले कुछ साल खूब सुख से बीते । उसका ख़सम हर 4-5 महीने में 10-15 दिन की छुट्टी ले के आता, साथ में एक टोटा सूट का लाता , कुछ तोहफ़े थमाता , कुछ दिन मौज कर फिर लौट जाता अपनी नौकरी को । पारवती ने कई बार साथ ले जाने को कहा तो पति ने यह कह कर टाल दिया की घर पे बूढी माँ का ख्याल कौन रखेगा और फिर उसे घर का इंतज़ाम भी तो करना है । अभी जिस एक कमरे में वो रहता है वहां थोड़े ही ले जा सकता है उसे । जल्दी ही दो कमरे के क्वार्टर का इंतज़ाम कर के साथ ले जायेगा ।
दिन बीतते रहे, अभी शादी का दूसरा साल चढ़ा ही था कि पारवती का पैर भारी हो गया । अब पति के पास नया बहाना तैयार हो गया कि इस हालत में वहां उसका ख्याल कैसे रखेगा । उसे तो काम पर जाना होता है पीछे से कुछ ऊँच-नीच हो गयी तो? घर पर रहेगी तो माँ देखभाल कर सकेगी ।देखते ही देखते नौ महीने भी गुज़र गए पर पति ने मुड़ के दर्शन नहीं दिए, न ही कभी हाल ही पूछा । हाँ जब उसकी माँ ने किसी से कह कर तार भिजवाया कि चाँद सा बेटा हुआ है तो भागा चला आया । दो चार दिन खेल कर और हाथ में कुछ पैसे थमा कर लौट गया । फिर महीनों कोई खैर खबर नहीं । हाँ कभी कभी कुछ सौ रुपये का मनी आर्डर आ जाता।
यह सिलसिला चलता रहा - कुछ चार या पांच सावन तो गुज़र ही गए होंगे । कुलजीत को कई ख़त लिखे , अम्बरसर जाते लोगों के मुहं संदेसे भिजवाए पर कोई जवाब नहीं । दूर के एक रिश्तेदार को जब कसमे खिलायीं तो उसने वो बताया जिसने पारवती के पैरों तले की ज़मीन खिसका दी ।
कुलजीत जिस घर में किराये पे रहता था उसकी मालकिन एक बेवा थी और उस से दस साल बड़ी भी, वह उससे दूजा ब्याह रचा बैठा था । दहेज़ में उसे 15 साल की बेटी भी मिली थी ।यह सब सुनकर पारवती तो जैसे टूट गयी थी, जीने की इच्छा त्याग कर खुदकुशी करने चली थी पर उसके बेटे का मासूम चेहरा उसे रोक गया । उसने जीने की ठानी अपने बेटे के लिए । जो भी हुआ उसमें उस बच्चे का कोई कसूर न था तो वो क्यों खज्जल हो । पारवती ने गाँव के ही कुछ घरों में बर्तन धोने का काम पकड़ा और जैसे तैसे बेटे के लालन पालन में जुट गयी । मनी ऑर्डर अभी भी आते थे पर उसने उन्हें लेना या हाथ लगाना मुनासिब न समझा और हर बार उलटे हाथ लौटा दिया ।
इसके बाद पारवती ने जैसे बरसों का हिसाब रखना बंद ही कर दिया । बस अपने बेटे को देख यह सोचती कि कब बड़ा हो और वो कोई सुख का दिन देखे । बेटा भी इस कच्ची उम्र में ही सयाना हो गया था । अपनी माँ के दर्द को समझता उसे गले लगा कर अक्सर कहता की जब वो बड़ा हो जायेगा तो उसे कोई काम नहीं करने देगा। पारवती इसी आस को सीने से लगा दिन काटती रही ।
फिर मानसून की एक शाम खपरैलों पे खड़-खड़ बजती बारिश के बीच दरवाज़े पर दस्तक हुई । किवाड़ खोले तो देखा एक जाना पहचाना सा चेहरा जिसे पानी रिसते प्लास्टिक के बोरे के नीचे से झाँक रहा है । कुलजीत ही था । पारवती ने कुछ नहीं कहा दरवाज़ा खुला छोड़ चौके पर आकर अपना काम करने लगी ।
कुलजीत सामने आ बिन्ने पर बैठ गया । कुछ देर रसोई में सन्नाटा रहा जिसे सिर्फ हांडी में चलती कड़छी की आवाज़ गाहे-बगाहे चीर देती। जब सन्नाटा बहरा करने लगा तो कुलजीत से रहा नहीं गया तो खुद ही आप बीती सुनाने लगा । दूसरी बीवी की लड़की सोलह साल की उम्र में ही गली के किसी आवारा लोफ़र के साथ भाग पड़ी । किसी तरह मान मनोती कर के दोनों परिवारों में मामला सुलटाया और लड़का लड़की की सलीके से शादी करवाई पर वो एक नंबर का कमीना और लालची निकला । दो महीने में ही घर पर आ धमका कि एक ही लड़की है तो घर इसके नाम करो । कुलजीत की दूसरी बीवी भी गरम दिमाग की थी उसने जब जवाई को हड़काया तो बात तू तू मैं मैं तक पहुँच गयी । तैश में आकर जवाई ने बन्दूक निकल ली । कुलजीत ने बीच बचाव की कोशिश की तो इस हाथ पायी में गोली चल गयी और माँ बेटी दोनों को लील गयी ।
पुलिस ने ससुर दामाद दोनों को धर दबोचा और क़त्ल का मुकदमा ठोक डाला । आखिरकार वकीलों की जेबों पर अपनी जमा पूँजी लुटा कर कुलजीत बरी तो हो गया और दामाद को भी सजा दिलवा ही दी । पर इस रस्साकशी में लगभग दो साल बीत गए और नौकरी जो गयी सो गयी घर भी बिक गया । जब कोई ठौर समझ नहीं आया तो कुलजीत को पारवती की सुध आई । अब सामने बैठ कर गिडगिडा रहा था कि माफ़ कर दो और साथ रहने दो । गलती का एहसास भी हो गया है और सजा भी मिल गयी है । अब सिर्फ उसका और बेटे का ख्याल रखना चाहता है । प्रायश्चित करना चाहता है ।
पारवती को जो अब तक चुप चाप चूल्हे पर राखी हांडी में कड़छी चला रही थी न जाने क्या सूजा कि उसने चूल्हे से सुलगता लकड़ी का चप्पर निकला और कुलजीत के मुहं पर दे मारा । कुलजीत दर्द से कराहता बाहर की ओर भागा कि शायद बरसते पानी में कुछ ठंडक मिले । पारवती भी जलती मशाल सा चप्पर लिए पीछे लपकी ।
"कम्ज़र्त ! कमीने ! कभी फिर यहाँ का रुख भी किया तो जिंदा जला दूंगी। दोबारा कभी नज़र मत आना ।"
कुलजीत बरसते पानी के परदे में आँख झपकते खो गया । जब तक पारवती को होश आया चप्पर की आग बुझ चुकी थी । वो रसोई की और भारी कदमो से लौट चली।
चूल्हे में लकड़ी डाल सुलगाने की कोशिश करने लगी । जल्द ही सारी रसोई धुंए से भर उठी और धुआं पारवती के फेफड़ों के कोनो को जलाने लगा और आखों से गंगा जमुना छलक उठी । जाने आज लकड़ी सीनी थी या उसके ही मन का गुब्बार था जो फुट पड़ा था , वह तय नहीं कर पायी । बस दीवार से सर टिका निढाल हो गयी ।
अभी कल ही की तो बात है जब वो दुल्हन के लाल जोड़े में शर्मा रही थी । दूर पास की बड़ी-बूढी औरतें उसे आसिसें दे रही थी , हम उम्र अठकेलियाँ कर रही थी और छोटी सपनो भरी निगाहों से उसे निहार रही थी । पारवती का ब्याह पास ही के गाँव के लम्बे-चौड़े नौजवान से तय हुआ था । तो क्या हुआ अगर वो कुछ सांवली थी उसके भाईयों ने लेन-देन में कोई कसर नहीं रखी थी । कुलजीत नाम था उसके गबरू लाड़े का । अम्बरसर में कपड़े की मिल में काम करता था । अब गाँव में शहर में नौकरी करने वालों का अलग ही रुतबा रहता था । वही रुतबा उसके पति था तो सभी ब्याह से खूब खुश थे ।
पारवती के भी पहले कुछ साल खूब सुख से बीते । उसका ख़सम हर 4-5 महीने में 10-15 दिन की छुट्टी ले के आता, साथ में एक टोटा सूट का लाता , कुछ तोहफ़े थमाता , कुछ दिन मौज कर फिर लौट जाता अपनी नौकरी को । पारवती ने कई बार साथ ले जाने को कहा तो पति ने यह कह कर टाल दिया की घर पे बूढी माँ का ख्याल कौन रखेगा और फिर उसे घर का इंतज़ाम भी तो करना है । अभी जिस एक कमरे में वो रहता है वहां थोड़े ही ले जा सकता है उसे । जल्दी ही दो कमरे के क्वार्टर का इंतज़ाम कर के साथ ले जायेगा ।
दिन बीतते रहे, अभी शादी का दूसरा साल चढ़ा ही था कि पारवती का पैर भारी हो गया । अब पति के पास नया बहाना तैयार हो गया कि इस हालत में वहां उसका ख्याल कैसे रखेगा । उसे तो काम पर जाना होता है पीछे से कुछ ऊँच-नीच हो गयी तो? घर पर रहेगी तो माँ देखभाल कर सकेगी ।देखते ही देखते नौ महीने भी गुज़र गए पर पति ने मुड़ के दर्शन नहीं दिए, न ही कभी हाल ही पूछा । हाँ जब उसकी माँ ने किसी से कह कर तार भिजवाया कि चाँद सा बेटा हुआ है तो भागा चला आया । दो चार दिन खेल कर और हाथ में कुछ पैसे थमा कर लौट गया । फिर महीनों कोई खैर खबर नहीं । हाँ कभी कभी कुछ सौ रुपये का मनी आर्डर आ जाता।
यह सिलसिला चलता रहा - कुछ चार या पांच सावन तो गुज़र ही गए होंगे । कुलजीत को कई ख़त लिखे , अम्बरसर जाते लोगों के मुहं संदेसे भिजवाए पर कोई जवाब नहीं । दूर के एक रिश्तेदार को जब कसमे खिलायीं तो उसने वो बताया जिसने पारवती के पैरों तले की ज़मीन खिसका दी ।
कुलजीत जिस घर में किराये पे रहता था उसकी मालकिन एक बेवा थी और उस से दस साल बड़ी भी, वह उससे दूजा ब्याह रचा बैठा था । दहेज़ में उसे 15 साल की बेटी भी मिली थी ।यह सब सुनकर पारवती तो जैसे टूट गयी थी, जीने की इच्छा त्याग कर खुदकुशी करने चली थी पर उसके बेटे का मासूम चेहरा उसे रोक गया । उसने जीने की ठानी अपने बेटे के लिए । जो भी हुआ उसमें उस बच्चे का कोई कसूर न था तो वो क्यों खज्जल हो । पारवती ने गाँव के ही कुछ घरों में बर्तन धोने का काम पकड़ा और जैसे तैसे बेटे के लालन पालन में जुट गयी । मनी ऑर्डर अभी भी आते थे पर उसने उन्हें लेना या हाथ लगाना मुनासिब न समझा और हर बार उलटे हाथ लौटा दिया ।
इसके बाद पारवती ने जैसे बरसों का हिसाब रखना बंद ही कर दिया । बस अपने बेटे को देख यह सोचती कि कब बड़ा हो और वो कोई सुख का दिन देखे । बेटा भी इस कच्ची उम्र में ही सयाना हो गया था । अपनी माँ के दर्द को समझता उसे गले लगा कर अक्सर कहता की जब वो बड़ा हो जायेगा तो उसे कोई काम नहीं करने देगा। पारवती इसी आस को सीने से लगा दिन काटती रही ।
फिर मानसून की एक शाम खपरैलों पे खड़-खड़ बजती बारिश के बीच दरवाज़े पर दस्तक हुई । किवाड़ खोले तो देखा एक जाना पहचाना सा चेहरा जिसे पानी रिसते प्लास्टिक के बोरे के नीचे से झाँक रहा है । कुलजीत ही था । पारवती ने कुछ नहीं कहा दरवाज़ा खुला छोड़ चौके पर आकर अपना काम करने लगी ।
कुलजीत सामने आ बिन्ने पर बैठ गया । कुछ देर रसोई में सन्नाटा रहा जिसे सिर्फ हांडी में चलती कड़छी की आवाज़ गाहे-बगाहे चीर देती। जब सन्नाटा बहरा करने लगा तो कुलजीत से रहा नहीं गया तो खुद ही आप बीती सुनाने लगा । दूसरी बीवी की लड़की सोलह साल की उम्र में ही गली के किसी आवारा लोफ़र के साथ भाग पड़ी । किसी तरह मान मनोती कर के दोनों परिवारों में मामला सुलटाया और लड़का लड़की की सलीके से शादी करवाई पर वो एक नंबर का कमीना और लालची निकला । दो महीने में ही घर पर आ धमका कि एक ही लड़की है तो घर इसके नाम करो । कुलजीत की दूसरी बीवी भी गरम दिमाग की थी उसने जब जवाई को हड़काया तो बात तू तू मैं मैं तक पहुँच गयी । तैश में आकर जवाई ने बन्दूक निकल ली । कुलजीत ने बीच बचाव की कोशिश की तो इस हाथ पायी में गोली चल गयी और माँ बेटी दोनों को लील गयी ।
पुलिस ने ससुर दामाद दोनों को धर दबोचा और क़त्ल का मुकदमा ठोक डाला । आखिरकार वकीलों की जेबों पर अपनी जमा पूँजी लुटा कर कुलजीत बरी तो हो गया और दामाद को भी सजा दिलवा ही दी । पर इस रस्साकशी में लगभग दो साल बीत गए और नौकरी जो गयी सो गयी घर भी बिक गया । जब कोई ठौर समझ नहीं आया तो कुलजीत को पारवती की सुध आई । अब सामने बैठ कर गिडगिडा रहा था कि माफ़ कर दो और साथ रहने दो । गलती का एहसास भी हो गया है और सजा भी मिल गयी है । अब सिर्फ उसका और बेटे का ख्याल रखना चाहता है । प्रायश्चित करना चाहता है ।
पारवती को जो अब तक चुप चाप चूल्हे पर राखी हांडी में कड़छी चला रही थी न जाने क्या सूजा कि उसने चूल्हे से सुलगता लकड़ी का चप्पर निकला और कुलजीत के मुहं पर दे मारा । कुलजीत दर्द से कराहता बाहर की ओर भागा कि शायद बरसते पानी में कुछ ठंडक मिले । पारवती भी जलती मशाल सा चप्पर लिए पीछे लपकी ।
"कम्ज़र्त ! कमीने ! कभी फिर यहाँ का रुख भी किया तो जिंदा जला दूंगी। दोबारा कभी नज़र मत आना ।"
कुलजीत बरसते पानी के परदे में आँख झपकते खो गया । जब तक पारवती को होश आया चप्पर की आग बुझ चुकी थी । वो रसोई की और भारी कदमो से लौट चली।
चूल्हे में लकड़ी डाल सुलगाने की कोशिश करने लगी । जल्द ही सारी रसोई धुंए से भर उठी और धुआं पारवती के फेफड़ों के कोनो को जलाने लगा और आखों से गंगा जमुना छलक उठी । जाने आज लकड़ी सीनी थी या उसके ही मन का गुब्बार था जो फुट पड़ा था , वह तय नहीं कर पायी । बस दीवार से सर टिका निढाल हो गयी ।
सोमवार, 12 नवंबर 2012
रविवार, 21 अक्टूबर 2012
लोरी
यह छोटी सी लोरी है जो मैं अपनी बिटिया को सुलाते समय गुनगुनाता हूँ .....
आरना जी सो जाओ,
आरना जी सो जाओ,
आँखों को बंद कर लो,
सपनों में खो जाओ,
सपनों में खोकर तुम,
दूर गगन उड़ जाओ,
उड़ उड़ कर आरना,
दूर देश घूम आओ,
दूर देश घूम कर तुम,
सबसे मिल के आ जाओ,
सबसे मिल के तुम तो,
प्यार बहुत सा ले आओ,
प्यार सब का ले के तुम,
जल्दी बड़े हो जाओ,
आरना जी सो जाओ,
सपनों में खो जाओ |
शनिवार, 14 जुलाई 2012
गुवाहटी से क्षुब्द होकर ......
आगे बढ़ना है हमे ,
आसमां छूना है ,
नया भारत कहना है खुद को ...
फ़िर भी गुडगाँव , गुवाहटी
या अपने ही घर में ,
क्यों आधा भारत ....
सिर्फ सिसकियाँ भरता है ?
सिर्फ सिसकियाँ भरता है ?
रात को घर से निकलते डरता है
बर्बरता से मुर्दित अस्मिता सहलाता है
नमकीन आंसुओं का मरहम लगता है ....
और शेष आधा ...
या तो नीच निशाचर बन
भूखे भेडिये सा
शिकार ढूंढता
रस्ते पर घूमता है
या फ़िर निस्तब्द तमाशबीन
घर की इज्ज़त
तार तार होते बस ताकता है ।
मंदिर में जिसको पूजते हैं
उसी को सड़कों पर
वेहशी बन कर नोचते हैं
क्या आगे बढ़ रहे हैं हम ,
क्या तो आसमा छुएंगे
और क्या ही नया है हम में ....
क्या ही नया है ??
गुरुवार, 14 जून 2012
कविता और मैं
बिन भाव कविता है क्या ?
मात्र शब्द ही तो हैं ,
और भाव क्या है?
मेरा अक्स ही तो हैं ,
तो कविता मुझसे भिन्न कैसे हो ?
यह तो मेरी ही है ,
तुम्हारी कैसे हो ?
फिर कैसे करूँ शिकवा ,
जब कोई कहे,
मज़ा नहीं आया
कि दिल तक पहुंची नहीं,
अरे पगले !
कभी हम दिल तक पहुंचे हैं,
जो कविता दिल तक पहुंचेगी,
यह तो खुद मुझ ही में उलझी है ।
मेरी शंकाओं पर पली है ,
मेरे ही भय पे खेली है,
तो मुझ से आगे कैसे निकले ,
यह तो मेरी ही है ,
तुम्हारी कैसे हो ?
शनिवार, 26 मई 2012
नन्ही सी कोंपल
किसी की घटती बढ़ती
धडकनों के बीच
एक नन्ही सी
कोंपल बढ़ रही है
कुदरत की क्या
अजब तरकीब है
कि एक ज़िन्दगी में
इक और ज़िन्दगी
करवट ले रही है
कभी घर पे तेरे
कान लगा
तेरी धडकनों को
सुनता हूँ
टोह कर
तेरी हरकतों को
कैसे खेलूँगा तुझसे
ख्वाब यह बुनता हूँ
हंसी को तेरी
किल्कारियों को
सोचकर आंसूं आते हैं
जब साक्षात् तू
गोद में खेलेगी
जाने क्या हाल होगा
ये सोच पल-पल
तेरा इंतज़ार करता हूँ.....
रविवार, 1 जनवरी 2012
Story: The Jhelum Waters
Shinu’s parents died when he was two years old and since then his grandmother has been looking after him. The best part of being with the Grandmother was her bed time stories. He loved her stories but they were often interrupted by the sound of bullets and explosions far away in the distance. He had often seen men carrying guns going around in Army uniforms and often in civilian dresses. But he never understood who they were and he was too scared to talk to them. Whenever he saw anyone with a gun he held his breath and waited for them to pass and go out of sight.
“Strangers”, his Dadi replied.
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